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Wednesday, September 16, 2009

दुविधा



हर सुबह तो ऐसी नही होती
हर शाम तो ऐसे नही ढलती
कभी कभी जिंदगी
उस मुकाम पर ले आती हें
कोई शब गुज़ारे नही गुज़रती
लम्हे हज़ार आते हें
दौरा-ए-उम्र के दरम्यान
हर लम्हे पर तो ये
आँख भी नही भरती.

3 comments:

आनन्द वर्धन ओझा said...

इश्वरजी,
'हर लम्हे पर तो ये आँख भी नहीं भरती..."
लम्हे - लम्हे बदलती है तस्वीर-ए- ख्वाब,
हर नुकीली ईंट शदीद जख्म नहीं करती...'
सच ही तो कहा है आपने.
ये शेर अभी-अभी यहीं लिखा, आपके लिए... सप्रीत... आ.

Amit K Sagar said...

बहुत ही अच्छा लिखा है, मगर और भी अच्छा हो सकता था...जारी रहें. शुक्रिया.
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Till 25-09-09 लेखक / लेखिका के रूप में ज्वाइन [उल्टा तीर] - होने वाली एक क्रान्ति!

शरद कोकास said...

समय प्रबन्धन और प्रेम .. कुछ सोचना पड़ेगा !!